(1) रस
नोट- नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार निर्धारित दो रसों-हास्य एवं करुण का ही अध्ययन यहाँ पर अपेक्षित है।
हास्य रस
हास्य रस की परिभाषा- किसी की आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर हृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है वह 'हास' कहा जाता है। यही हास जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से पुष्ट हो जाता है तो उसे 'हास्य रस' कहा जाता है।
हास्य रस के उपकरण-
(क) स्थायी भाव-हास।
(ख) विभाव- (1) आलम्बन विभाव-विकृत वेशभूषा, आकार, चेष्टाएँ आदि।
(2) उद्दीपन विभाव-आलम्बन की अनोखी आकृति, बातचीत तथा चेष्टाएँ आदि।
(ग) अनुभाव-आश्रय की मुस्कान, नेत्रों का मिचमिचाना, अट्टहास आदि।
(घ) संचारी भाव-हर्ष, आलस्य, निद्रा, चपलता, कम्पन, उत्सुकता आदि।
उदाहरण-
बिन्ध्य के बासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गोतमतीय तरी, तुलसी, सो कथा सुनि भै मुनिबृन्द सुखारे ।।
है हैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद-मंजुल कंज तिहारे ।
कीन्हीं भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे।।
स्पष्टीकरण-
(क) स्थायी भाव –हास ।
(ख) विभाव- (1) आलम्बन-विन्ध्य के उदास वासी; आश्रय- पाठक।
(2) उद्दीपन-गौतम की स्त्री का उद्धार ।
(ग) अनुभाव - मुनियों की कथा आदि सुनना।
(घ) संचारी भाव-हर्ष, उत्सुकता, चंचलता आदि।
अतः उपर्युक्त उदाहरण हास्य रस पर आधारित है।
करुण रस
करुण रस की परिभाषा-किसी भी प्रियवस्तु, व्यक्ति आदि के अनिष्ट की आशंका अथवा इनके विनाश से उत्पन्न क्षोभ अथवा दुःख की संवेगात्मक स्थिति को 'करुण रस' कहा जाता है।
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से पूर्णता प्राप्त होने पर 'शोक' नामक स्थायी भाव से 'करुण रस' की निष्पत्ति होती है।
उपकरण-
(क) स्थायी भाव- शोक।
(ख) विभाव- (1) आलम्बन-विनष्ट व्यक्ति अथवा वस्तु।
(2) उद्दीपन-आलम्बन का दाहकर्म, इष्ट के गुण तथा उससे सम्बन्धित वस्तुएँ, इष्ट के चित्र का दर्शन आदि।
(ग) अनुभाव - भूमि पर गिरना, निःश्वास, छाती पीटना, रोदन, प्रलाप, मूर्च्छा, देव-निन्दा, कम्प आदि।
(घ) संचारी भाव-निर्वेद, मोह, अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति, श्रम, विषाद, जड़ता, दैन्य, उन्माद आदि ।
उदाहरण-
अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले थे चुम्बन-शून्य कपोल।
हाय रुक गया यहीं संसार,
बना सिन्दूर अनल अंगार ।
वातहत लतिका यह सुकुमार ।
पड़ी है छिन्नाधार!
स्पष्टीकरण-
(क) स्थायी भाव -शोक।
(ख) विभाव- (1) आलम्बन- विनष्ट पति।
(2) उद्दीपन- मुकुट का बँधना, हल्दी के हाथ होना, लाज के बोल न खुलना।
(ग) अनुभाव- वायु से आहत लतिका के समान नायिका का बेसहारा पड़े होना।
(घ) संचारी भाव- विषाद, दैन्य, स्मृति, जड़ता आदि।
अतः उपर्युक्त उदाहरण में करुण रस है।
(2.) अलंकार
अलंकार की परिभाषा-अलंकार शब्द 'अलं'+'कार' शब्दों के योग से बना है। यहाँ 'अलं' का अर्थ है- 'भूषण तथा 'कार' का अर्थ है-'वाला'; अर्थात् जो अलंकृत करे अथवा शोभा बढ़ाने में सहायक हो। जिस प्रकार आभूषण पहनने से स्त्री के सौन्दर्य में चार चाँद लग जाते हैं, उसी प्रकार अलंकार के प्रयोग से काव्य का सौन्दर्य बढ़ जाता है। अलंकारों के प्रयोग से शब्द और अर्थ में चमत्कार उत्पन्न हो जाता है।
अतः काव्य के शब्द तथा अर्थ में चमत्कार उत्पन्न करके काव्य की शोभा बढ़ानेवाले तत्त्वों को 'अलंकार' कहते हैं।
अलंकार के भेद
अलंकारों के दो मुख्य भेद होते हैं— (1) शब्दालंकार, (2) अर्थालंकार ।
विशेष – आपके पाठ्यक्रम में केवल अर्थालंकार और उसके उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा अलंकार भेद ही निर्धारित हैं; अतः यहाँ उन्हीं का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है-
अर्थालंकार
परिभाषा - अर्थ में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले अलंकार, 'अर्थालंकार' कहलाते हैं।
अर्थालंकार कई प्रकार के होते हैं, जिनमें मुख्य उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकार हैं।
(1) उपमा अलंकार
परिभाषा — जहाँ पर किसी वस्तु या व्यक्ति की (उपमेय की) किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु से (उपमान से) किसी समान धर्म, गुण आदि के आधार पर समानता बताई जाए, वहाँ 'उपमा अलंकार' होता है।
उपमा अलंकार के चार अंग हैं—
(1) उपमेय - जिसकी उपमा दी जाए।
(2) उपमान-जिससे उपमा दी जाए।
(3) समान धर्म-उपमेय-उपमान की वह विशेषता जो दोनों में एकसमान हो।
(4) वाचक शब्द-समानता को प्रकट करनेवाले शब्द; जैसे—सा, इव, सम, समान, जैसे आदि।
उदाहरण - 'मुख मयंक सम मंजु मनोहर।'
यहाँ पर मुख की तुलना सुन्दर चन्द्रमा से की गई है; अतः यहाँ उपमा अलंकार है।
उपमा के अन्य उदाहरण-
(क) सजल-नीरद-सी
कल - कान्ति थी।
(ख) अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था।
(ग) छिन्न-पत्र मकरन्द लुटी-सी, ज्यों मुरझाई हुई कली।
(घ) अराति सैन्य सिन्धु में—सुवाडवाग्नि-से जलो।
(2) रूपक अलंकार [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20]
परिभाषा - जहाँ उपमेय पर उपमान का भेदरहित आरोप होता हो; अर्थात् जहाँ उपमेय और उपमान में कोई भिन्नता प्रदर्शित न की जाए, वहाँ 'रूपक अलंकार' होता है;
यथा—चरन - कमल बन्दौ हरिराइ।
रूपक के अन्य उदाहरण-
(क) मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता।
(ख) भज मन चरण-कँवल अविनासी ।
(ग) बन्द नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप ।
(3) उत्प्रेक्षा अलंकार [2007, 08, 09, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20 ]
परिभाषा - जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाती है, वहाँ 'उत्प्रेक्षा अलंकार' होता है; यथा-
सोहत ओढ़ें पीतु पटु, स्याम सलोने गात।
मनो नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात ।। [2011]
उपर्युक्त उदाहरण में श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) पर नील-मणियों के पर्वत (उपमान) की तथा पीतुं पटु (उपमेय) पर प्रभात की धूप (उपमान) की सम्भावना की गई है। उत्प्रेक्षा को व्यक्त करने के लिए प्रायः मनु, मनहुँ, मानो, जनु, जानेहुँ, जानो आदि वाचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
उत्प्रेक्षा के अन्य उदाहरण-
(क) धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी।।
(ख) मोर मुकुट की चन्द्रिकनु, यौं राजत नँदनंद।
मनु ससि सेखर की अकस, किय सेखर सत चंद ।। [2011, 14]
उपमा और उत्प्रेक्षा में अन्तर– उपमा अलंकार में किसी वस्तु (उपमेय) की किसी अन्य वस्तु (उपमान) से किसी समान गुण-धर्म आदि के आधार पर समानता बताई जाती है, जबकि उत्प्रेक्षा अलंकार में उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की जाती है।
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उदाहरण-उपमा-कमल के समान कोमल चरण।
उत्प्रेक्षा- मानो चरण कमल-से कोमल हो।
उपमा और रूपक में भेद-उपमा अलंकार में किसी वस्तु या व्यक्ति (उपमेय) की किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति (उपमान) से किसी समान गुण-धर्म के आधार पर समानता बताई जाती है, जबकि रूपक अलंकार में उपमेय पर उपमान का अभेद आरोप किया जाता है।
उदाहरण-उपमा-पीपर-पात सरिस मन डोला।
रूपक - मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता।
(3.) छन्द
छन्द का अर्थ
'हिन्दी-साहित्य-कोश' के अनुसार, “अक्षर, अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, मात्रा-गणना तथा यति-गति आदि से सम्बन्धित विशिष्ट नियमों से नियोजित पद-रचना 'छन्द' कहलाती है।"
'छन्द' का शाब्दिक अर्थ है 'बन्धन'। अतः वर्ण, गति, विराम, मात्रा, तुक आदि नियमों पर आधारित शब्द-रचना को ही 'छन्द' कहा जाता है। 'छन्द' को अंग्रेजी भाषा में 'Metre' अथवा 'Verse' कहते हैं।
छन्द के प्रकार
छन्द अनेक प्रकार के हैं; किन्तु मुख्य रूप से छन्दों के निम्नलिखित भेद हैं-
(1) मात्रिक छन्द- मात्रा की गणना पर आधारित छन्द 'मात्रिक छन्द' कहलाते हैं। इनमें वर्णों की संख्या भिन्न हो सकती है, परन्तु उनमें निहित मात्राएँ नियमानुसार होनी चाहिए।
(2) वर्णिक छन्द- केवल वर्ण-गणना के आधार पर रचे गए छन्द 'वर्णिक छन्द' कहलाते हैं। वृत्तों की तरह इनमें गुरु-लघु का क्रम निश्चित नहीं होता, केवल वर्ण-संख्या का ही निर्धारण रहता है। इनके दो भेद हैं-साधारण और दण्डक। 1 से 26 वर्णवाले छन्द साधारण और 26 से अधिक वर्णवाले छन्द दण्डक होते हैं। हिन्दी के घनाक्षरी (कवित्त), रूपघनाक्षरी और देवघनाक्षरी वर्णिक छन्द हैं।
(3) वर्णिक वृत्त- वर्णिक छन्द का एक क्रमबद्ध, नियोजित और व्यवस्थित रूप वर्णिक वृत्त होता है। वृत्त उस सम-छन्द को कहते हैं, जिसमें समान चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में आनेवाले वर्णों का लघु-गुरु क्रम सुनिश्चित रहता है। गुणों के नियम से नियोजित रहने के कारण इसे गुणात्मक छन्द भी कहते हैं। मन्दाक्रान्ता, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थ, मालिनी आदि इसी प्रकार के छन्द हैं।
विशेष-आपके पाठ्यक्रम में सोरठा और रोला दो ही छन्द निर्धारित हैं; अतः यहाँ केवल उन्हीं का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है-
1. सोरठा [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20]
परिभाषा- यह दोहे का उल्टा छन्द है। इसके पहले और तीसरे चरणों मे
11-11 तथा दूसरे और चौथे चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण-जो सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिवर बदन।
करहु अनुग्रह सोइ, बुद्धिरासि सुभ गुन सदन ।।
।।। । ऽ।। ऽ । ऽ । ऽ । ।। ।। ।।।
111 1211 21 21 21 11 11 111
(11+13 = 24 मात्राएँ )
स्पष्टीकरण-इस छन्द के पहले और तीसरे चरणों में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरणों में 13-13 मात्राएँ हैं; अत: यह 'सोरठा' छन्द है।
2. रोला [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20]
परिभाषा - यह सम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। 11 और 13 मात्राओं पर यति होती है। दो-दो चरणों में तुक होना और प्रत्येक चरण के अन्त में दो गुरु या दो लघु वर्ण होते हैं।
उदाहरण -
ऽ। ऽ। । । ऽ । ऽ । । । ।।।। ऽ ।।
कोउ पापिह पँचत्व, प्राप्त सुनि जमगन धावत ।
बनि बनि बावन बीर, बढ़त चौचंद मचावत ||
पै तकि ताकि लोथ, त्रिपथगा के तट लावत ।
नौ द्वै ग्यारह होत, तीन पाँचहिं बिसरावत ।।
स्पष्टीकरण-इस पद्य के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ हैं तथा 11 व 13 पर
यति है, अत: यह 'रोला' छन्द है।

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